हमारे देश में केसर केवल जम्मू-कश्मीर में उत्पन्न होता है किन्तु गुणवत्ता के हिसाब से यह विश्व भर में सर्वोत्तम माना जाता है
भारत को मसालों का देश माना जाता है और यहीं पर पैदा होता है विश्व का सबसे महंगा मसाला जिसे हम केसर के नाम से जानते हैं। केसर को अंग्रेजी में सैफ्रन तथा उर्दू व कश्मीरी में जाफ़रान कहते हैं। सैफ्रन अरबी शब्द जाफ़रान से बना है जिसका अर्थ है पीला। केसर की भीनी-भीनी सुगन्ध, उत्तम स्वाद, तथा मनभावक पीला रंग इसकी लोकप्रियता को विश्व स्तर तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुए हैं।
आज उत्तम श्रेणी के केसर की कीमत विश्व बाज़ार में लगभग 4000 डालर (लगभग पौने 4 लाख रु. प्रति किलोग्राम) है। हमारे देश में उच्च श्रेणी के केसर का मूल्य लगभग 3 लाख रु. प्रति किलोग्राम तथा अधिक है।
क्या है केसर ?
केसर लाल नारंगी रंग का होता तथा पानी में घुलनशील होता है। घुलने के बाद पानी का रंग हल्का पीला तथा सुगन्धित हो जाता है। केसर के फूलों का रंग नीला – बैंगनी होता है। वास्तव में इन फूलों के मादा जननांग के रूप में मध्य भाग से लाल रंग की तीन लम्बी लटें सी निकलती है जिन्हें वर्तिका कहते हैं। असली केसर इन्हीं. लटों को सुखाने के बाद बनता है। इसके रेशे लगभग एक से डेढ़ सेमी. लम्बे धागों के टुकड़ों जैसे दिखते हैं। देखने में केसर कुछ-कुछ सिगरेट के अन्दर भरे हुये तम्बाकू के चूर्ण जैसा लगता है किन्तु गुणों में यह तम्बाकू से एक दम भिन्न होता है। फूलों के किसी अन्य भाग का उपयोग कैंसर के उत्पादन में नहीं किया जाता है। वैसे मिलावटी केसर में इन फूलों के दूसरे भागों जैसे इसके पीले रंग के नर पुंकेसर या पंखुड़ियों को भी डाल देते हैं।
केसर के पौधे को सैफ्रन क्रोकस के नाम से जाना जाता है। वनस्पत्ति विज्ञान की भाषा में इसका नाम क्रोकस सैटाइवस है। इसकी फसल मई-जून, में उगाई जाती है तथा फसल की कटाई नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है जब इसके नीले- बैंगनी फूल अपना पूरा यौवन बिखराते हुये खिल जाते हैं। कैंसर का पौधा छोटा होता है तथा. इसकी पत्तियां लम्बी व नुकीली होती।
इसकी खेती के लिए विशेष प्रकार की जलवायु की जरूरत होती है, जो गर्मियों में गर्म तथा शुष्क और सर्दियों में बहुत ठंडी (बर्फ से युक्त) होनी चाहिये। भूमि समतल तथा वृक्षहीन होनी चाहिये । प्रति हैक्टेयर औसतन 10 से 20 किलोग्राम फूल की उपज होती है जिसमें 100 ग्राम से लेकर 200 ग्राम तक केसर उत्पन्न होता है। सामान्यतः एक किलोग्राम केसर के उत्पाद के लिये डेढ़ से पौने दो लाख फूलों की आवश्यकता होती है।
केसर के पौधों को उगाने के लिये जड़ों में लगने वाले बल्ब (प्याज के जैसे) उपयोग में लाये जाते हैं। इसके खेतों में किसी भी रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया जाता है। जड़ें लगभग 20 सेमी. की गहराई पर लगाई जाती हैं तथा दो पौधों के बीच, में लगभग 10 सेमी. का अन्तर रखा जाता है।
फसल की कटाई बेहद कठिन तथा सावधानी पूर्वक किया जाने वाला कार्य है। सामान्यतः भोर के समय सूर्योदय से पूर्व यह कार्य सम्पन्न किया जाता है तथा सारा कार्य हाथों द्वारा ही किया जाता है। फूलों को तोड़ने के बाद फूलों के अन्दर से वर्तिका की तीन लड़ियों को सावधानीपूर्वक निकाल लिया जाता है तथा उन्हें छाया में पाँच से सात दिनों तक सूखने के लिये रख दिया जाता है। यह कार्य बहुत जरूरी है क्योंकि इस वर्तिका में काफी नमी होती है और इनके पूर्ण रूप से सूख जाने के बाद ही अच्छी गुणवत्ता वाला केसर प्राप्त होता है।
केसर का उत्पादन
केसर भारत तथा पश्चिमी एशिया में उगाया जाता है। वैसे तो यह इरान, स्पेन, ग्रीस तथा इटली आदि देशों में भी पैदा होता है, किन्तु सर्वोत्तम श्रेणी का केसर हमारे देश में कश्मीर के पाम्पोर नामक स्थान पर उगाया जाता है। केसर सबसे पहले ईरान तथा कश्मीर में उगाई गई थी। बाद में युद्ध के दौरान तथा आक्रमणकारियों के आगे बढ़ने पर इसका प्रचार अन्य देशों में भी हुआ। दसवीं सदी में जब मुस्लिमों ने स्पेन पर विजय प्राप्त की तो स्पेन में भी इसकी खेती आरम्भ हुई। 18वीं सदी में केसर मंगोल आक्रमणकारियों द्वारा चीन ले जाया गया।
विश्व में सबसे अधिक केसर का उत्पादन ईरान में होता है। जिसके पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी भाग में (अधिकतर वहाँ के खोरस्सान प्रान्त में) प्रति वर्ष 150 से 170 मीट्रिक टन केसर उत्पन्न होता है। उसके बाद ग्रीस में 5 से 7 मी. टन, मोरक्को में 2 से 3 मी. टन, भारत (कश्मीर) में 2 से 3 मी. टन, स्पेन में एक मी. टन तथा इटली में लगभग 100 किलोग्राम केसर उत्पन्न किया जाता है।
केसर उत्पादन एक प्राचीन कला है। कहा जाता है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के जमाने में बौद्ध लोग अपने वस्त्रों को केसरिया रंग देने के लिए केसर का उपयोग करते थे।
मुगलों के जमाने में इस कला का और भी अधिक विकास किया गया तथा विभिन्न प्रकार के पकवानों में जैसे पुलाव, बिरियानी, शरबत, चाय, मिठाइयों आदि में इसका उपयोग किया जाने लगा। इसके अलावा, स्पेनिश, फ्रेन्च, इटैलियन तथा ग्रीक डिशों में, भी इसका उपयोग किया जाता है।
केसर का उपयोग यूनान, रोम तथा स्पेन में सुगंध के लिये भी किया गया था। सम्राट नीरों के रोम नगर में प्रवेश के समय वहाँ की गलियों में केसर का छिड़काव किया जाता था ।
हमारे देश में केसर केवल जम्मू-कश्मीर में उत्पन्न होता है किन्तु वह विश्व का सबसे उत्तम गुणवत्ता का केसर होता है। कश्मीर में श्रीनगर से 20 किमी. दक्षिण में स्थित पाम्पोर नामक स्थान पर लगभग 17,000 भूमि पर कैंसर उगाया जाता है। यह स्थान श्रीनगर-जम्मू हाईवे पर अतीपुर के निकट स्थित है पर सफेदा (पाप्लर) के पेड़ों की लकड़ी से क्रिकेट के बल्लों का निर्माण भी बहुतायत मैं किया जाता है। इसके अलावा कश्मीर में केसर थोड़ी मात्रा में किश्तवार नामक स्थान में भी उगाया जाता है।
पाम्पोर के अलावा अन्य कई स्थानों पर केसर उगाने के प्रयास किये गए थे किन्तु उसमें सफलता नहीं मिली है। पाम्पोर के किसान तो यहाँ तक कहते हैं कि कुछ लोग अपने साथ पाम्पोर की मिट्टी भी लेकर गये तथा दूसरे क्षेत्रों में केसर उगाने का प्रयास किया, किन्तु उन्हें भी वहाँ सफलता नहीं मिल पाई।
केसर की पहचान
केसर में रंग, सुगंध तथा स्वाद के लिये क्रमशः क्रोसीन, पिक्रो क्रोसीन तथा सैफ्रानाल नामक रसायन पाये जाते हैं। जब कैंसर को पानी या दूध में डाला जाता है तो ये रसायन निकलने लगते हैं जिससे पानी या दूध में रंग, सुगंध तथा स्वाद आ जाता है। इसी जल (या दूध) को किसी पकवान या मिठाई में डालने पर यह पकवान भी इसी प्रकार रंगीन, सुगंधित तथा स्वादिष्ट हो जाता है। एक बार डालने पर असली केसर 24 घंटे तक सुगंध छोड़ता रहता है। इस प्रकार यदि केसर को जल से निकाल कर दूसरे पानी में डाला जाये तो दुबारा उस पानी में भी इसी प्रकार का स्वाद, रंग. सुगंध आदि आ जाएगी। कैंसर के केवल कुछ रेशे दो या (तीन) से ही भरपूर रंग, स्वाद व सुगंध आदि आ जाते हैं, जो कई घन्टे बने रहते हैं।
शुद्ध केसर लाल-नारंगी रंग रेशे के रूप में होता है। इसमें पीला, सफेद या अन्य किसी रंग का पदार्थ नहीं होना चाहिये। इसे सूघने पर तीखी व ताजी सुगंध का एहसास होना चाहिये। इसके रेशे नमी रहित (सूखे) होने चाहिये तथा छूने पर टूट कर पाउडर बनने वाले होने चाहिये। शुद्ध कैंसर वर्षों तक रखा जा सकता है। सामान्यतः केसर एक ग्राम की डिब्बी में बेचा जाता है। जहां कश्मीरी केसर की कीमत लगभग 300 रु. प्रति ग्राम होती है वहीं ईरान तथा स्पेन का केसर 200 से 250 रु. प्रति ग्राम तक मिल जाता है।
भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार भारत को केसर से काफी उम्मीदें हो चली है। क्योंकि स्पेन में केसर का उत्पादन बहुत घट गया है जिसके फलस्वरूप भारत का केसर व्यापार । बढ़ने की सम्भावना है। भारतीय मसाला बोर्ड यह भी प्रयास कर रहा है कि केसर को हिमाचल प्रदेश की साँगला में घाटी में भी उगाया जाए जहाँ की मिट्टी में भरपूर कैल्शियम है तथा जहाँ की भूमि पर वर्ष में चार महीने बर्फ जमी रहती है। यदि यह प्रयास सफल रहता है तो भारत में केसर उत्पादन के लिये काफी व्यावसायिक अवसर उपलब्ध हो सकते हैं।
श्रोत:- विज्ञान प्रगति पत्रिका