मंत्र जप के लिए आवश्यक नियम
(1.) कोई भी मंत्र अथवा ईश्वर का नाम चुन लो और उसका नित्य प्रति १०८ से १ ०८० बार तक जप करो, अर्थात् एक माला से लेकर दस माला तक । अच्छा हैं कि यह मंत्र अपने गुरूमुख से लो ।
(2.) १०८ दानों की रुद्राक्ष अथवा तुलसी माला का प्रयोग करों । मनको को फेरने के लिए सीधे हाथ की मध्यमा तथा अंगूठे का प्रयोग करो तर्जनी का प्रयोग निषिद्ध हैं ।
(3.) माला को नाभि से नीचे नहीं लटकने देना चाहिए । हाथ को य तो दिल के पास रऱवो या नाक के पास ।
(4.) माला न तो दिखाई देनी चाहिए ओर न जमीन पर ही लटकी रहनी चाहिए । माला को या तो वरुत्र से ढक लो य तोलिये से । लेकिन यह वरुत्र या तौलिया स्वच्छ होना चाहिए और प्रति दिन उसे धो डालना चाहिए ।
(5.) जव तुम माला के मनके फेरते हो तो माला को सुमरनी अथवा मेरु को पार मत करो । जाब तुम्हारी उंगलिया । मेरु के पास आ जाती हैं, तब तुरन्त वापस लौट चलना चाहिए ओर उसी अंतिम मनके से पुन: माला फेरना आरम्भ कर दो।
(6.) कुछ समय तक मानसिक जप करो । यदि मन चंचल हों जाता है तो जप गुनगुनाते हुए आरम्भ कर दो । फिर जोंर-जोर से जप आरम्भ करो । इसके बाद फिर मानसिक जप जितनी जल्दी हो सके, करना आरम्भ कर दो ।
(7.) प्रातः कल जप के लिए बैठने से पूर्व या तो स्नान कर लो, या हाथ- मुँह धो डालो । दोपहर या संध्या के समय यह करना अत्वश्यक नहीं है । पर यदि संभव हों तो हाथ-पैर अदि अवश्य धो डालना चाहिए । जब भी तुम्हे खली समय मिले तव भी जप करते रहो मुख्य रूप से प्राताकाल, दोपहर तथा संध्या और रात की सोने से पूर्व जाप अवश्य करना चाहिए ।
(8.) जप के साथ में या तो अपने आराध्य का ध्यान करो या प्राणायाम करो । अपने आराध्य का चित्र अथवा प्रतिमा अपने समक्ष रखो । जब-जब तुम जप करते हो, तव मन्त्र के अर्थ पर विचार किया करों ।मंत्र के प्रत्येक अक्षर का ठीक से सही – सही उच्चारण किया करो । न तो बहुत जल्दी और न वहुत धीरे ही । जव तुम्हारा मन चंचल हो जाय, तो अपनी जप की प्रगति को तेज कर दो ।
(9.) जप के समय मौन घारण करौ । और इस समय अपने सांसारिक कार्यों से कोई सम्बन्ध न रखो ।
(10.) पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुंह करके जहाँ तक हो, प्रतिदिन एक ही स्थान पर जप के लिए आसन लगाओ । मंदिर, नदी का किनारा, या बरगद अथवा पीपल के वृक्ष के नीचे का स्थान जप करने के लिए उपयुक्त स्थान है ।
(11.) जब तुम जप करते हो तो भगवान् से कोई सांसारिक वास्तु के लिए याचना न करो है। ऐसा अनुभव करों कि भनावान् की अनुकम्पा से तुम्हारा ह्रदय निर्मल होते जा रहा है ओर चित्त सुदृढ़ बन रहा है।
(12.)अपना गुरुमन्त्र सबके सामने प्रकट न करो । जाब तुम अपने कार्य करते हो, तब भी मन में जप करते रहो ।