अद्वैत के संस्थापक आदि गुरु शंकराचार्य
वैदिक धर्म तथा संस्कृति के उद्धारक आदि शंकराचार्य ने उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा गीता पर भाष्य लिखकर सम्पूर्ण जनमानस को धर्म का यथार्थ रूप समझाया है । ज्ञान के साथ भक्ति का आविष्कार भी हम उनके जीवन में देख सकते है । उनकी दिव्य वाणी आज भी सभी को नई शक्ति तथा प्रेरणा देती है । उनका जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को अद्रा नक्षत्र में दक्षिण भारत के केरल राज्य के कालड़ी नामक ग्राम में ७८८ ईस्वी में ब्राह्मण दंपत्ति विशिष्टा और विश्वगुरु के घर में हुआ था ।
मात्रा आठ वर्ष की आयु में शंकर ने चरों वेदों में सम्पूर्णता हासिल कर ली थी । सोलह वर्ष की अल्पायु में ही शिक्षा पूरी करके उन्होंने षड्दर्शन का सांगोपांग अध्ययन कर लिया था । वैदिक धर्म के उत्थान का पूरा श्रेय इन्ही को जाता है । फलतः उनका मन बाह्य जगत से पूरी तरह विरक्त हो गया । उन्होंने जब संन्यास लेने का निश्चय किया, तब मां ने उन्हें रोका, लेकिन धर्म-संस्कृति के उद्वार की प्रबल आकांक्षा से प्रेरित बालक के क़दमों को मां की ममता भी न रोक सकी। वह नर्मदा के तट पहुंचे और विख्यात गौड़पद के आत्मज्ञानी गोविंद भागवतपद के शिष्य बन गए । यहीं पर उन्होंने गुरु के समक्ष अद्वैत वेदांत का अध्ययन भी किया था । इसके बाद उन्होंने दिग्विजय यात्राएं करके अनेक प्रकार के धार्मिक कार्य कराए । हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और कश्मीर से आसाम तक उन्होंने पद यात्रा की ।
इस दौरान उन्होंने कई समकालीन प्रकांड विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित भी किया । शास्त्रार्थ में उन्हें बौद्ध, मीमांशा, न्याय, सांख्य, तंत्र वैष्णव अदि दर्शन धाराओं के विद्वानों का सामना करना पड़ा । लेकिन शंकर की विद्वता के सामने सभी नतमस्तक हुए । इन्होंने हिन्दू धर्म को मार्ग देने के लिए चार मठों की स्थापना भी की । कर्नाटक में श्रंगेरी, गुजरात में द्वारका, उड़ीशा में पूरी और उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ । इन्होंने भगवद गीता में श्रीकृष्ण के वचन ‘जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब में अवतार लेता हूं’ को चरित्रार्थ करते हुए उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा की । उन्हें शिव का अवतार भी मन जाता है ।