राजा हरिश्चंद्र ने जब अपना राज्य विश्वामित्र को दान दे दिया तब राजा हरिश्चंद्र की रानी तारा कहने लगी राजन हमने तो राज्य का पूरा सुख लिया ही नहीं और आपने दान कर दिया । तब राजा ने कहा हे रानी! जब राज हमारे पास था हम राज्य का नाटक करते रहें । यह राज्य पहले ही हमारा नहीं था और आगे भी हमारा नहीं रहेगा । हम राज्य का दान करके हम सब चिंताओं से मुक्त हो गए हैं ।
जितना समय हमने राज्य करना था वह पूरा हो गया है । परंतु हे रानी हम राज्य करने का नाटक ही तो कर रहे थे । मैंने तो कभी भी राजा बनने का अभिमान नहीं किया । मैंने इसे खेल समझा है । जैसे फुटबॉल का खेल खेलने वाला खिलाड़ी फुटबॉल को जब फेकता है वह किसी ना किसी की झोली में जा पड़ता है । फिर झोली वाला खेलता है फिर किसी की किसी और की झोली में जा गिरता है । रानी यह राज्य भी फुटबॉल था । मैं भी फुटबॉल की तरह खेलता रहा । जब फेंका तू विश्वामित्र की झोली में जा पड़ा ।
पहले भी किसी ने खेला हमारी झोली में आन पड़ा था । हे रानी ! कौन राजा ? कौन रानी ? हम तुम भी तो राजा रानी का नाटक कर रहे हैं । नाटक करते-करते दोनों में एक चला जाएगा । जब तुम दोनों के बाद हमारा लड़का रोहित संसार के स्वांग में नाटक करने आ जाएगा । जब उसका नाटक पूरा होगा । वह भी चला जाएगा । यहाँ भी कोई किसी का नहीं । जैसे क्रिकेट का खेल, कबड्डी का खेल, फुटबॉल का खेल, खिलाड़ी इकट्ठे होते हैं खेल समाप्त होने पर सब अपने घर चले जाते हैं । बस उनका संबंध खेल तक ही होता है ।
मेरे मीत मेरे सज्जन इस नाटक को सच्चा मत जानना । हम सब खेल खेलने वाले एक्टर हैं । खेल की हार जीत तो फर्जी होती है । इसे सच मत मान । हम सब कुछ भी नहीं लाए थे और कुछ नहीं ले जाएंगे । सब कुछ धरे का धरा रह जाएगा । फिर शोर किस बात का । अब हम जिस काम को करने के लिए आए थे वह काम को पूरा करें । असली काम तो हमारी अंतरात्मा की प्राप्ति है ।
शरीर में दुख सुख हमारे नहीं शरीर के हैं । हम शरीर के दुख सुख के साक्षी हैं । फिर सारा दुख सुख से क्या वास्ता । हमारा असली सुख तो आत्म सुख है । जो सदा एकरस रहने वाला है । दुनिया नकली सुख को पाने के लिए प्रयत्न कर रही है । यही नकली सुख मिल भी जाए तो क्षणभंगुर है पर आत्म सुख सदा एकरस रहने वाला अजर अमर अविनाशी है । हे रानी ! राजा बनने के बोझ को उतारकर हमारे पर बड़ी कृपा की है । आओ हम अंतर आत्मा की प्राप्ति करें ।