ह्वेनसांग भारत का परिभ्रमण कर जहाज से वापस चीन जा रहा था । उसेके साथ ग्रंथों से भरी एक पेटिका भी थी । जहाज अभी कुछ ही दूर गया था की तूफान मैं फंस गया । जहाज के डगमगाने पर प्रधान नाविक ने यात्रिओं से फालतू सामान बिना देर किये समुद्र में फेकने की अपील की । तत पश्चात नाविक ने ह्वेनसांग को भी उसे पेटिका को फेकने को कहा ।
ह्वेनसांग असमंजस में पड़ गया क्योंकि यह उसकी भारत यात्रा की एक मात्र पूंजी थीं । इसलिए उसने उस पेटिका को फेकने में आनाकानी की । तब नाविक क्रोधित हो गया । इससे पूर्व नाविक उस पेटिका को सागर के हवाले करता । एक युवक आगे आया और बोला, ‘नाविक, उस पेटिका को न छुओ, इसके स्थान पर में होने शरीर का भार कम कर देता हूँ ।’ ह्वेनसांग का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया । इससे पहले कि वह कुछ पूछता । युवक दृढ़ निश्चय भाव में बोला, ‘नाशवान शरीर का वलिदान कर पवित्र ज्ञान निधि का संरक्षण हर इंसान का धर्म है । इस पेटिका से सदियों से अंधकार में भटकते जन-समुदाय को ज्ञानरूपी जीवन मिलेगा ।’ अगले ही क्षण उस युवक ने सागर में छलांग लगा दी ।
ह्वेनसांग डब-डबाई आँखों से बस इतना ही कह सका, ‘ज्ञान के रक्षण हेतु शरीर का परित्याग ही धर्म है । महान भारत से मुझे यही अंतिम शिक्षा प्राप्त हुई है ।’