जब तुम जप करने के जिए बैठते हो तो सिद्धासन लगाओ और मूलबन्ध का अभ्यास करों । इससे चित्त कों एकाग्र करने में सफलता मिलती है । यह अभ्यास अपान वायु को नीचे को ओर आने से रोकता है । पद५मासन पर बैठने का अम्यास होने से तुम साधारण रूप से मूल-बंध कर सकते हो । जितनी देर हो सके, सुगमतापूर्वक मूलबन्ध का अभ्यास करो । श्वास के रोकने की क्रिया को कुम्भक कहा जाता है । कुम्भक के अभ्यास से चित्त दृढतर बनता जता है और एकाग्रता का स्वत: अवतरण होता है । इसके अभ्यास से तुमको परम दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी ।
जब तुम मंत्र का जाप करते हो तो मंत्र के अर्थ को समझते हुए जप करो । राम, कृष्ण, शिव, नारायण इन सबका अर्थ है, सत्, आनन्द, अर्थात पवित्रता, पूर्णता, ज्ञान, सत्यता तथा अमरत्व ।
जप और कर्म योग
कार्य करते समय हाथो को काम पर लगाओ और मन को ईश्वर की सेवा में, अर्थात् मंत्र का जप करते रहो । अभ्यास करते – करते दोनों काम साथ-साथ किए जा सकते है। हाथ अपना कार्य करते रहेंगे और मानसिक शक्ति जप में संलग्न रहेगी है । ऐसा समझ लो कि तुम्हरे दो अंतःकरण हो गए और तुम बिना किसी कठिनाई के दो कार्य साथ-साथ कर सकते हो । अंतःकरण का एक भाग तो कार्य कराता रहेगा और दूसरा भाग जप-साधना और भागवत-स्मरण । कार्य करते-करते भगवन का जाप करते रहो । यह अष्टावधानी के लक्षण हैं; एक ही साथ कई काम करते रहना है यह तो अन्तःकरण की अभ्यास करने की बात है । यदि तुम अपने अंतःकरण को इस सांचे में ढाल लो कि वह इन्द्रिओ के माध्यम से अनेको कार्य साथ-साथ करता रहे और जप का प्रवाह भी निरंतर चलता रहे तो तुम प्रत्येक कार्य को अत्यंत सुगमतापूर्वक कर सकोगे । इस प्राकार कर्मयोग ओर भक्तियोग का समन्वय सिद्ध किया जा सकता है । गीता में भगवान यही कहते हे—-अतः मेरा चिन्तन करो और युद्ध में प्रवृत्त हो जाओ । यदि तुम अपने मत और अंतःकरण को मुझमें लगाए रहोगे तो नि:सन्देह मेरे पास पहुंच सकोगे । यद्यपि गाय दिन भर चरागाहो में घास चरती है, पर उसका मन अपने उस बछड़े पर रहता हैं, जो घर में छूटा हुआ है । इसी द्रश्टान्त के अनुसार तुम्हें अपना ध्यान ईश्वर पर लगा कर जप करना होगा और हाथों से काम ।