50 कबीर दास के लोकप्रिय दोहे । Kabir Das Ke Dohe with Meaning in Hindi

कबीर दास के लोकप्रिय दोहे | Kabir Das Ke Dohe with Meaning in Hindi

कबीर दास के लोकप्रिय दोहे । Kabir Das Ke Dohe with Meaning in Hindi

संत कबीर एक महान संत थे जो 15 वीं शताब्दी में जन्मे थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति और धर्म के बारे में अपने दृष्टिकोण और सिद्धांतों के माध्यम से लोगों को प्रभावित किया।

कबीर एक संत थे, जिन्होंने दो धर्मों, यानी हिंदू और मुस्लिम धर्मों को एक समान माना था। उनकी रचनाओं में उन्होंने सामाजिक और धार्मिक समस्याओं को उठाया और लोगों को सत्य की तलाश करने के लिए प्रेरित किया।

कबीर की रचनाएं हिंदी और अवधी भाषा में थीं, जो उनकी संगीतमयी भाषा को और भी आकर्षक बनाती थी। उनकी रचनाओं में भगवान के साथ संवाद, आत्मा के महत्व, समाज सेवा और सत्य के विभिन्न आयामों के बारे में बताया गया है।

कबीर ने भारतीय संस्कृति और धर्म के विभिन्न तत्वों को एकीकृत करने का संदेश दिया था। उन्होंने सभी धर्मों को एक समान माना था और लोगों को धर्म के महत्व को समझने के लिए प्रेरित किया।

कबीर ने अपने जीवन में जातिवाद और उससे उत्पन्न समस्याओं के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने लोगों को बताया कि सभी मनुष्य एक समान होते हैं और कोई भी व्यक्ति अपनी जाति, रंग, धर्म या किसी अन्य सामाजिक बंधन के कारण दूसरों से बेहतर नहीं होता।

कबीर ने भी जीवन में अपने समय के नेताओं और राजाओं के खिलाफ भी आवाज उठाई थी। उन्होंने लोगों को याद दिलाया कि एक अच्छे समाज का निर्माण सिर्फ सत्य, अहिंसा और समझदारी से हो सकता है।

कबीर की रचनाओं में संतों, भक्तों और रिश्तेदारों के बीच संवाद भी होता है। उन्होंने भगवान और आत्मा के संबंध में भी बताया था। उन्होंने लोगों को आत्माओं के महत्व के बारे में समझाया और यह भी बताया कि सभी जीवों में एक दिव्य आत्मा होती है।

कबीर की रचनाओं का प्रभाव उनके समकालीन संतों और उनके बाद के संतों पर भी था। उनकी रचनाओं ने भारतीय संस्कृति को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इस लेख में हम संत कबीर के लोकप्रिय दोहे – Kabir das ke dohe पढ़ेंगे और साथ ही उन दोहों के हिंदी अर्थ भी जानेंगे –

आइए जानते हैं कबीर दास जी के दोहों – Kabir Ke Dohe के बारे में –

[1] संत कबीर दोहा-

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।

अर्थ – जब मैं संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नही मिला । लेकिन जब मैंने अपने मन में देखने का प्रयास किया तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि दुनिया में मुझसे बुरा कोई नही है ।

[2] संत कबीर दोहा-

“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय॥”

अर्थ – मनुष्य ईश्वर को दुःख में याद करता है । सुख में कोई नही याद करता है। यदि सुख में परमात्मा को याद किया जाये तो दुःख ही क्यों हो

[3] संत कबीर दोहा-

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।

[4] संत कबीर दोहा-

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ।।

अर्थ – संत कबीर (Kabir) जी कहते है कि जो हमारी निंदा करते है , उन्हें अपने सबसे पास रखना चाहिए । क्योकि वे बिना साबुन और पानी के हमेशा हमारी कमियो को बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करते है ।

[5] संत कबीर दोहा-

तू तू करता तू भया, मुझमे रही न हूँ ।
बारी फेरी बलि गई, जित देखू तित तू ।।

अर्थ – मुझमें अहं भाव समाप्त हो गया है। मै पूर्ण रुप से तेरे ऊपर न्योछावर हो गया हूँ ।अब जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू दिखायी देता है और सारा जगत ब्रह्ममय हो गया है ।

[6] संत कबीर दोहा-

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माही ।
ज्योज्यो घट– घट राम है, दुनिया देखें नाही ।।

अर्थ – कबीर दास (Kabir) जी ईश्वर की महत्ता बताते हुये कहते है कि कस्तूरी हिरण की नाभि में होता है, लेकिन इससे वो अनजान हिरन उसके सुगन्ध के कारण पूरे जगत में ढूँढता फिरता है । ठीक इसी प्रकार से ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में निवास करते है, परन्तु मनुष्य इसें नही देख पाता । वह ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, और तीर्थस्थानों में ढूँढता रहता है ।

[7] संत कबीर दोहा-

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काको लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।

अर्थ – हमारे सामने गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े है तो आप किसके चरणस्पर्श करेगे । गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा हमे ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है । इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊपर है । अतः हमे गुरु का चरणस्पर्श करना चाहिए ।

[8] संत कबीर दोहा-

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत दूर(ऊँचाई ) पे लगता है। इसी तरह अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।

[9] संत कबीर दोहा-

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष (जहर) से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश(सर) देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है

[10] संत कबीर दोहा-

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।

अर्थ – जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिटटी को रौंद रहा था, तो मिटटी कुम्हार से कहती है – तू मुझे रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिटटी में विलीन हो जायेगा और मैं तुझे रौंदूंगी

[11] संत कबीर दोहा-

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है, जो काम कल करना है वो आज करो, और जो आज करना है वो अभी करो, क्यूंकि पलभर में प्रलय जो जाएगी फिर आप अपने काम कब करेंगे

[12] संत कबीर दोहा-

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है

[13] संत कबीर दोहा-

पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात ।
एक दिन छिप जायेगा, ज्यो तारा प्रभात ।।

अर्थ : जैसे पानी का बुलबुला कुछ ही पलो में नष्ट हो जाता है ,उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी क्षणभंगुर है । जैसे सुबह होते ही तारे छिप जाते है । वैसे ही शरीर भी एक दिन नष्ट हो जायेगा ।

[14] संत कबीर दोहा-

जिन खोज तिन पाइए, गहरे पानी पैठ ।
मै बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ।।

अर्थ : जीवन में जो लोग हमेशा प्रयत्नशील रहते है । उन्हें सफलता अवश्य मिलती है ।जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही जाता है । लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से किनारे ही बैठे रहते है अर्थात असफल होने के डर से मेहनत नही करते ।

[15] संत कबीर दोहा-

तिनका कहु ना निंदिये, जो पवन तर होय ।
कभू उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय ।।

अर्थ : छोटी से छोटी चीज की कभी निंदा नही करनी चाहिए । क्योकि वक्त आने पर छोटी चीज भी बड़े काम की हो सकती है । ठीक वैसे ही जैसे एक तिनका पैरो तले कुचल जाता है, लेकिन आँधी चलने पर वही तिनका आँखों में पड़ जाये तो बहुत तकलीफ देता है ।

[16] संत कबीर दोहा-

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।।

अर्थ – कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।

[17] संत कबीर दोहा-

माला फेरत जग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ।।

अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि माला फेरते हुए कई युग बिता दिए लेकिन मन की अशांति नहीं मिट पायी, तो ऐसी माला फेरने का क्या फायद। हाथों से माला को जपना छोड़कर मन से माला को जपना शुरू करो अर्थात मन से परमात्मा का स्मरण करो तभी मन की अशांति मिट सकती है।

[18] संत कबीर दोहा-

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाये ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाये ।।

अर्थ:– कबीर जी कहते हैं कि कितना भी नहा धो लीजिये, यदि मन का मैल ही न साफ हो तो ऐसे नहाने धोने का क्या फायदा। जिस प्रकार मछली हमेशा पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी वो साफ नहीं होती उसमें से बदबू आती रहती है।

[19] संत कबीर दोहा-

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ।।

अर्थ:– इस संसार में मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है। यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता। जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता, उसी प्रकार इस समय का सदुपयोग करो यह समय फिर नहीं आएगा।

[20] संत कबीर दोहा-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।

अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !

[21] संत कबीर दोहा-

जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।

अर्थ: सज्जन पुरुष की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए । जिस प्रकार तलवार का मूल्य होता है न की उसमें रखने वाली म्यान

[22] संत कबीर दोहा-

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।।

अर्थ – तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से 4 पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं

[23] संत कबीर दोहा-

जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं

[24] संत कबीर दोहा-

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार–सार को गहि रहै, थोथा दे उड़ाय ।।

अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की आवश्यकता है ,जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है ।जो साफ़ सुथरी चीजों को बचा लेता है और बेकार चीजों को उड़ा देते है ।

[25] संत कबीर दोहा-

आछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।

[26] संत कबीर दोहा-

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार(मैं) था, तब मेरे ह्रदय में हरी(ईश्वर) का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरी(ईश्वर) का वास है तो मैं(अहंकार) नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है ।

[27] संत कबीर दोहा-

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर ।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर ।।

अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

[28] संत कबीर दोहा-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ ख़जूर ।
पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर ।।

अर्थ : ख़जूर के पेड़ के समान बड़े होने से क्या लाभ , जो न ठीक से किसी को छांव दे पाता है और न ही उसके फल आसानी से उपलब्ध हो पाते है । उनके अनुसार ऐसे बड़े होने का क्या फ़ायदा जब वो किसी की सहायता न करता हो या फिर उसके अंदर इंसानियत न हो ।

[29] संत कबीर दोहा-

संत ना छोड़े संतई, कोटिक मिले असंत ।
चन्दन विष व्यापत नही, लिपटे रहत भुजंग ।।

अर्थ : सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ो दुष्ट पुरुष मिल जाये फिर भी वह अपने सभ्य विचार, सद्गुण नहीं छोड़ता । जिस प्रकार चंदन के पेड़ से साँप लिपटें रहते है । फिर भी वह अपनी शीतलता नही छोड़ता ।

[30] संत कबीर दोहा-

मालिन आवत देखि के कलियाँ करे पुकार ।
फूले फूले चुन लिये,कालि हमार बारि ।।

अर्थ – कबीर दास (Kabir) जी ने इस दोहे में जीवन की वास्तविकता का दर्शन कराया है । मालिन को आता देख कर बगीचे की कलियां आपस में बाते करती है । आज मलिन ने फूलों को तोड़ लिया है ।कल हमारी बारी आ जाएगी । कल हम फूल बनेगे ।अर्थात आज आज आप जवान हो कल आप भी बूढे हो जाओगे और एक दिन मिट्टी में मिल मिल जाओगे ।

[31] संत कबीर दोहा-

साई इतना दीजिये तामें कुटुम समाये ।
मै भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये ।।

अर्थ – कबीर दास (Kabir) जी कहते है कि ईश्वर इतनी कृपा करना कि जिसमे मेरा परिवार सुख से रहे । न मैं भूखा रहूँ और न मेरे यहां आया अतिथि भूखा जाये ।

[32] संत कबीर दोहा-

करता रहा सो क्यों रहा, अब करी क्यों पछताय ।
बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते है कि जब तू बुरे कार्यो को करता था ,संतो के समझाने से भी नही समझ पाया तो अब क्यों पछता रहा है ।जब तूने काँटों वाले बबुल का पेड़ बोया है तो बबूल ही उत्पन्न होंगे ।आम कहाँ से मिलेगा । अर्थात जो मनुष्य जैसा कर्म करता है बदले में उसको वैसा ही परिणाम मिलता है ।

[33] संत कबीर दोहा-

कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।

[34] संत कबीर दोहा-

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम(बर्फ) भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं

[35] संत कबीर दोहा-

कहाँ से आया कहाँ जाओगे, खबर करो अपने तन की ।
कोई सदगुरु मिले तो भेद बतावें, खुल जावे अंतर खिड़की ।।

भावार्थ: जीव कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा? पंडित और मौलवी इसका जबाब धर्मग्रंथों से देते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि इस प्रश्न का सही जवाब चाहिए तो किसी सद्गुरु की मदद लो। जब तक अंतर आत्मा से परमात्मा को पाने की कसक नहीं उठेगी तब तक जीव को इस सवाल का सही जवाब नहीं मिलेगा कि इस दुनिया में वो कहाँ से आया है और एक दिन शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएगा।

[36] संत कबीर दोहा-

कबीर, मानुष जन्म दुलर्भ है, मिले न बारं-बार ।
तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लागे डार ।।

भावार्थ:- कबीर परमात्मा जी ने समझाया है कि हे मानव शरीरधारी प्राणी! यह मानव जन्म (स्त्री/पुरूष) बहुत कठिनता से युगों पयर्न्त प्राप्त होता है। यह बार-बार नहीं मिलता। इस शरीर के रहते-रहते शुभ कर्म तथा परमात्मा की भक्ति कर, अन्यथा यह शरीर समाप्त हो गया तो आप पुनः इसी स्थिति यानि मानव शरीर को प्राप्त नहीं कर पाओगे। जैसे वृक्ष से पत्ता टूटने के पश्चात् उसी डाल पर पुनः नहीं लगता। इसलिए इस मानव शरीर के अवसर को व्यर्थ न गँवा।

[37] संत कबीर दोहा-

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।।

अर्थ – जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्यूंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा ।

[38] संत कबीर दोहा-

चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए ।
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए ।।

अर्थ – कबीर कहते हैं कि चिंता रूपी चोर सबसे खतरनाक होता है, जो कलेजे में दर्द उठाता है । इस दर्द की दवा किसी भी चिकित्सक के पास नहीं होती।

चिंता चिता के सामान होती है। जो इन्सान को अन्दर ही अन्दर खा जाती है। इसलिए हमें जीवन में किसी भी चीज को लेकर, किसी भी बात को लेकर चिंता नहीं करनी चाहिये। चिंता करने के बजाय उस काम, उस बात, उस समस्या के बारे शांति से सोचना चाहिये फिर उसका समाधान ढूंढना चाहिये।

[39] संत कबीर दोहा-

माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।

[40] संत कबीर दोहा-

कागा का को धन हरे, कोयल का को देय ।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।

[41] संत कबीर दोहा-

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।।

इसका भावार्थ है कि कबीर दास जी हमें यह समझाते हैं जैसे तेल के अंदर तेल होता है, आग के अंदर रोशनी होती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर हमारी अंदर है , उसे ढूंढ सको तो ढूंढ लो।

[42] संत कबीर दोहा-

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि तिनके को पाँव के नीचे देखकर उसकी निंदा मत करिये क्यूंकि अगर हवा से उड़के तिनका आँखों में चला गया तो बहुत दर्द करता है। वैसे ही किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए।

[43] संत कबीर दोहा-

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि माया(धन) और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है शरीर बदलता है लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।

[44] संत कबीर दोहा-

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये ।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।

[45] संत कबीर दोहा-

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।

अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम(बर्फ) भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं ।

[46] संत कबीर दोहा-

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात ।
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।

अर्थ: कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

[47] संत कबीर दोहा-

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद ।।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

[48] संत कबीर दोहा-

कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन ।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।।

अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है

[49] संत कबीर दोहा-

जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ ।।

अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो. तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो. यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे.

[50] संत कबीर दोहा-

यह तन काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ ।।

अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया. कुछ भी हाथ नहीं आया.

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