रहीम के 36 चुनिंदा दोहे और उनके अर्थ – Rahim Ke Dohe in Hindi

रहीम के 36 चुनिंदा दोहे और उनके अर्थ – Rahim Ke Dohe Arth Sahit in Hindi

रहीम दास ने अकबर के दरबार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें समाज में बड़ा ही सम्मान मिला। उन्होंने अपने रचनाओं में संत, धर्मिकता, और नैतिकता के सिद्धांतों को सुंदरता से व्यक्त किया। उनकी कविताएं हिन्दी साहित्य में ‘रहीम के दोहे’ के नाम से मशहूर हैं।

रहीम दास के दोहे भाषा में सरल, सुगम और अर्थपूर्ण होते हैं, जो सामान्य लोगों को भी समझ में आते हैं। इनकी कविताएं आध्यात्मिक उद्देश्य को प्रदर्शित करती हैं और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं।

रहीम दास, भारतीय संस्कृति के महान कवि और संत थे । रहीम दास के दोहे भाषा में सरल और गहराई से भरे हुए हैं और वे जीवन की अनेक सच्चाइयों और नैतिकता के सिद्धांतों को छूने का प्रयास करते हैं।

रहीम के दोहे मन, बुद्धि, और आत्मा के विकास के मार्ग में मार्गदर्शन करते हैं और विभिन्न पहलुओं को समझाने में मदद करते हैं। यहां कुछ रहीम के प्रसिद्ध दोहे हैं:

Rahim Das ke Dohe in Hindi

रहिमन वे नर मर चुके, जे कछु माँगन जाहिं ।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।

अर्थ : वे लोग मर चुके हैं जो दूसरों से मांगते हैं । इसी संदर्भ में रहीम दास जी कहते हैं कि जो मनुष्य दूसरों से भीख माँगने की स्थिति में आ गया अर्थात् जो कहीं माँगने जाता है, वह मरे हुए के समान है। लेकिन जो व्यक्ति माँगने वाले को किसी वस्तु या सहायता के लिए मना करता है, वह माँगने वाले से पहले ही मर चुका है ।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि ।।

अर्थ : रहीमदास जी ने इस दोहे में बहुत ही अनमोल बात कही है। जिस जगह सुई से काम हो जाये वहां तलवार का कोई काम नहीं होता है। हमें समझना चाहिए कि हर बड़ी और छोटी वस्तुओं का अपना महत्व अपने जगहों पर होता है । बड़ों की तुलना में छोटो की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । रहीमदास जी कहते हैं कि बड़ी चीज़ के आने की वजह से छोटी चीज़ों को ठुकराना नहीं चाहिए क्यूंकि जो काम सुईं कर सकती है वह काम कभी तलवार नहीं कर सकती|

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।।

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि जो लोग अच्छे विचारों वाले और सज्जन होते हैं उनपर दुष्टता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जिस प्रकार जहरीले सांप सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

अर्थ – रहीम दास जी ने इस दोहे में 3 बार पानी शब्द का प्रयोग किया है और हर बार पानी शब्द का अलग मतलब है। 1. पानी = प्रतिष्ठा सम्मान 2. पानी = चमक 3. पानी = जल। प्रत्येक चीज़ के लिए पानी बहुत जरुरी है बिना पानी के संसार कुछ भी नहीं है। इंसान को पानी यानि मान सम्मान बनाये रखना चाहिए। मोती को पानी यानि चमक बनाये रखनी चाहिए नहीं तो उसका कोई मोल नहीं रहेगा। और पानी यानि जल के बिना तो हर जीव का जीवन ही खत्म हो जायेगा।

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं ॥

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन वसंत के समय में कोयल की मधुर आवाज से कौआ और कोयल में फर्क नजर आता है|

भावार्थ:अभिप्राय यह है कि सज्जन पुरुष और कुपुरुष दोनों देखने में एक ही जैसे होते हैं लेकिन व्यक्ति के व्यवहार और वाणी से उसकी सज्जनता का पता चलता है|

रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत ।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत ।।

अर्थ: गिरे हुए लोगों से न तो दोस्ती अच्छी होती हैं, और न तो दुश्मनी. जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही अच्छा नहीं होता ।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात ।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात ।।

अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि हर चीज़ समय आने पर ही होती है| समय आने पर ही वृक्ष पर फल लगता है और समय आने पर वह पेड़ से झड़ भी जाता है|

भावार्थ:अभिप्राय यह है कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता इसलिए दुःख के समय शोक नहीं करना चाहिए क्यूंकि सुख भी समय आने पर ही आएगा|

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन ।।

अर्थ : वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है । अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता ।

भावार्थ: अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है. उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है ।

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं ।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं ।।

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि किसी बड़े को अगर कोई छोटा भी कहता है तो इससे बड़े का बड़प्पन नहीं घटता जैसे गिरिधर श्री कृष्ण को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कोई कमी नहीं आती है|

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया। इससे भगवान विष्णु का क्या बिगड़ा! क्षमा बड़प्पन की निशानी है।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय ।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय ॥

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने मन का दुःख अपने मन में ही रखना चाहिए क्योंकि दूसरे लोग आपके दुःख को सुनकर इठला भले ही लें लेकिन कोई आपके दुःख का दर्द बाँट नहीं सकता।

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय॥

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि मुश्किल पड़ने पर मनुष्य की निजी धन ही उसकी सहायता कर सकता है। जिस प्रकार पानी का अभाव होने पर सूर्य कमल की कितनी ही रक्षा करने की कोशिश करे, फिर भी उसे सूखने से कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार मनुष्य को बाहरी सहायता कितनी भी क्यों न मिले, किंतु उसकी वास्तविक रक्षक तो निजी संपत्ति से ही होती है। अर्थात मनुष्य की निजी संपत्ति ही, उसके मुसीबत में काम आती है ।

थोथे बादर क्वार के, ज्यो रहीम छहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करे पाछिली बात॥

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि क्वार के महीने में जो बादल होते हैं वो केवल गरजते की आवाज करते हैं लेकिन उनमें पानी नहीं होता ठीक वैसे ही धनी इंसान निर्धन हो जाने के बाद भी अपना अमीरी का घमंड नहीं छोड़ता और पिछली बातों को याद कर करके घमंड करता है लेकिन मनुष्य को हर परिस्थिति में एक ही जैसा व्यव्हार करना चाहिए।

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥

अर्थ : रहीमदास जी इस दोहे में कहते हैं जिस प्रकार फटे हुए दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता है । उसी प्रकार प्रकार अगर कोई बात बिगड़ जाती है तो वह दोबारा नहीं बनती। अर्थात एक बार अगर बात बिगड़ जाये तो फिर लाख प्रयासों के बाद भी बात नहीं बनती जैसे दूध एक बार फट जाये तो फिर उसका ना ही दूध बनता है और ना ही मक्खन। इसलिए हर काम बड़ा ही सोच और समझ कर ही करें।

कही रहिम सम्पति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥

अर्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जब तक संपत्ति साथ होती है तो बहुत से रिश्ते और मित्र बन जाते हैं लेकिन विपत्ति के समय जो हमारा साथ देता है वही सच्चा मित्र होता है।

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय ॥

अर्थ : रहीम दास जी इस दोहे में कीचड़ का पानी बहुत ही धन्य है । क्योंकि उसका पानी पीकर छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े भी अपनी प्यास बुझाते हैं । परन्तु समुद्र में इतना जल का विशाल भंडार होने के पर भी क्या लाभ ? जिसके पानी से प्यास नहीं बुझ सकती है।

भावार्थ: यहाँ रहीम जी कुछ ऐसी तुलना कर रहे हैं ,जहाँ ऐसा व्यक्ति जो गरीब होने पर भी लोगों की मदद करता है । परन्तु एक ऐसा भी व्यक्ति, जिसके पास सब कुछ होने पर भी वह किसी की भी मदद नहीं करता है । अर्थात परोपकारी व्यक्ति ही महान होता है।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

अर्थ : रहीम दास जी कहते हैं कि पहले एक काम पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए। बहुत से काम एक साथ शुरू करने से किसी काम में सही से सफलता हासिल नहीं हो पाती , वे सब अधूरे से रह जाते हैं। एक बार में एक ही काम किया जाना ठीक है। जैसे एक ही पेड़ की जड़ को अच्छी तरह से सींचते रहने से उसका तना, शाख़ाएँ, पत्ते, सब हरे-भरे रहते हैं और फल-फूल प्राप्त किये जा सकते है ।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ परि जाय।।

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि प्रेम रूपी धागा टूटने मत दीजिये। क्योंकि अगर एक बार धागा टूट जाये तो दोबारा जोड़ने पर उसमें गाँठ पड़ जाती है। वैसे ही रिश्ते टूटकर जब फिर से जुड़ते हैं तो भी मन में एक गाँठ बानी रहती है।

रहिमन चुप हो बैठिए, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।

अर्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि बुरे दिन आने पर मनुष्य को चुप ही बैठना चाहिए, चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि जब अच्छे दिन आते हैं तो मनुष्य के सारे काम खुद ही बन जाते हैं। अतः हमेशा अपने सही समय का इंतजार करे ।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

अर्थ :रहीमदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष अपने फल को कभी नहीं खाते हैं, सरोवर अपने जल को कभी नहीं पीता है। उसी प्रकार परोपकारी लोग भी अपना इकट्ठा किये हुए धन से दूसरों का ही भला करते हैं।

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिए, वे साहन के साह।।

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि जिस को किसी प्रकार की कोई लालसा नहीं होती है, जिसका मन हर प्रकार की चिंताओं से ऊपर उठ गया। वो सारी चिंताओं से मुक्त रहता है, जो किसी भी इच्छा के प्रति बेपरवाह हो, ऐसे लोग तो शहंशाहों के भी शहंशाह होते हैं।

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥

अर्थ :इस दोहे में रहीम दास जी ने मछली के जल के प्रति घनिष्ट प्रेम को बताया है। मछली पकड़ने के लिए जब जाल पानी में डाला जाता है तो मछली के सदा साथ रहने वाला जल मोह छोड़कर उससे विलग हो जाता है, फिर भी मछली अपने प्रिय का परित्याग नहीं करती, उससे बिछुड़कर तड़प-तड़पकर अपने प्राण दे देती है।

रहिमन मनहि लगाई कै, देखि लेहू किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय॥

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि मन को एकाग्रचित कर के कोई क्यों नहीं देख लेता, इस परम सत्य को कि, मनुष्य को वश में कर लेना तो बात ही क्या, चाहे तो वह ईश्वर को भी अपने वश में कर सकता है ।

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार ।।

अर्थ – इस दोहे के माध्यम से रहीम दास जी कहना चाहते हैं कि अगर आपके मित्र अथवा परिवार के लोग आपसे रूठ जाते हैं तो आपको उन्हें मनाना चाहिए, चाहे वो सौ बार क्यों न रूठें। जिस प्रकार से किसी माला के टूट जाने पर हम फिर से मोती पिरोकर माला को जोड़ लेते हैं ।

बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय ।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय ।।

अर्थ : रहीमदास जी कहते हैं कि मनुष्य को सोच-समझ कर व्यवहार करना चाहिए । क्योंकि अगर किसी कारण से कुछ गलत हो जाता है, तो इसे सही करना मुश्किल होता है, जैसे कि एक बार दूध फट जाये, तो हजार कोशिश करने के बाद भी उसमे से न तो मक्खन बनता है और न ही दूध ।

 

मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय ।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय ।।

अर्थ : रहीम दास जी कहते हैं कि मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और स्वाभाविक रूप में रहते हैं ,तब तक अच्छे लगते है । परन्तु यदि एक बार वे फट जाएं तो करोड़ों उपाय कर लो वे फिर वापस अपने सहज रूप में नहीं आते।

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो करै, बढ़े अँधेरो होय ।।

अर्थ –दीपक के चरित्र जैसा ही कुपुत्र का भी चरित्र होता है । इसी संदर्भ में रहीम दास जी कहते हैं कि दीपक और सुपुत्र एक समान होता है। जब तक दीपक जलता है चारों ओर प्रकाश रहता है, अगर दीपक बुझ जाये तो अँधेरा हो जाता है ठीक उसी प्रकार सुपुत्र जिस घर में होता है वहां यश और कीर्ति फैलाता है और उसके जाते ही सब सूना हो जाता है।

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ।।

अर्थ :रहीम दास जी कहते है कि, धन्य है वो लोग, जिनका हर अंग परोपकार के लिए आतुर रहता है। वह जीवन की सार्थकता परोपकार में ही मानता है। अर्थात जिस प्रकार मेंहदी पीसकर दूसरों के हाथ में मेंहदी लगाने वाले के अपने हाथ भी स्वतः रंग जाते हैं, उसी प्रकार उपकार करने वाले के अंग भी उपकार के आनंदरूपी रंग में रच बस जाते हैं।

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।।

अर्थ – इस दोहे के माध्यम से रहीम दास जी कहना चाहते हैं कि अगर आपके मित्र अथवा परिवार के लोग आपसे रूठ जाते हैं तो आपको उन्हें मनाना लेना चाहिए, चाहे वो सौ बार क्यों न रूठें। जिस प्रकार से किसी माला के टूट जाने पर हम फिर से मोती पिरोकर माला को जोड़ लेते हैं ।

रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।

अर्थ : इस दोहे के माध्यम से रहीम दास जी कहना चाहते हैं कि आंसू नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं । व्यक्ति को मन का दु:ख मन में ही रखना चाहिए। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से बता ही देता है । इसलिए रोओ मत धैर्य के साथ दु:ख के दिनों को काट लो।

खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।

अर्थ : खीरे का कड़ुवापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है। यदि किसी के मुंह से कटु वाणी निकले तो उसे भी यही सजा होनी चाहिए।

रहिमन ओछे नरन ते, भलो बैर ना प्रीति।
काटे-चाटे स्वान के, दुहूँ भाँति बिपरीति।।

अर्थ – रहीम दास जी इस दोहे में कहते हैं कि दुष्ट लोगों से ना तो मित्रता अच्छी है और ना ही दुश्मनी। जैसे कुत्ता चाहे गुस्से में काटे या फिर प्यार से तलवे चाटे, दोनों की यह स्थिति कष्टदायी होती हैं। दुष्ट लोगों से तो दूरी ही अच्छी है।

जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह ।।

अर्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे इस धरती पर सर्दी, गर्मी और बारिश होती है। यह सब पृथ्वी सहन करती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है। उसी तरह मनुष्य के शरीर को भी सुख और दुख सहना सीखना चाहिए ।

रहिमन जिह्वा बाबरी, कहि गई सरग-पताल ।
आपु तो कहि भीतर गयी, जूती खात कपाल।।

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि इंसान को सदैव बड़ा ही सोच समझ कर बोलना चाहिये। ये जीभ तो बावरी है, कटु शब्द कहकर मुंह के अंदर छिप जाती है। और उसका परिणाम बेचारे सर को भुगतना पड़ता है क्योंकि लोग सिर पर ही जूतियां मारते हैं।

जे गरीब सों हित करें, ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरी, कृष्ण मिताई जोग।।

अर्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि जो लोग गरीबों की मदद करते हैं, हर संभव तरीके से उनके हित की बात सोचते हैं। ऐसे लोग महान होते हैं। सुदामा एक गरीब इंसान थे और श्री कृष्णा द्वारिका के राजा थे लेकिन कृष्ण ने मित्रता निभाई और आज उन दोनों की मित्रता के किस्से बड़ी महानता से सुनाये जाते हैं।

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ।।

अर्थ – रहीम दास जी कहते हैं कि देने वाला तो कोई और है, वो ईश्वर दिन रात हमको देता ही रहता है। और लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है। मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगने वाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो।

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