Sanskrit Vyakaran – (संस्कृत व्याकरण) – Sanskrit Grammar
हिन्दी का ही नहीं भारत की समस्त आर्य भाषाओं का मूल स्रोत संस्कृत है। अतः उसके और अन्य भाषाओं के शब्दों में पर्याप्त परिमाण में एकरूपता है, किन्तु संस्कृत व्याकरण की ऐसी बहुत-सी विशेषताएँ हैं जो अन्य भाषाओं के व्याकरण में नहीं मिलती हैं। संस्कृत भाषा व्याकरण प्रधान होने के कारण उसका व्याकरण दुरूह है जो विद्यार्थियों के लिए बहुत जटिल है। प्रस्तुत प्रकरण में हम संस्कृत व्याकरण की सामान्य विशेषताओं को अति सरल रूप में प्रकट कर रहे हैं।
वर्ण-विचार
वर्ण-माला-संस्कृत तथा हिन्दी की वर्णमाला एक-सी ही है। पाणिनि ने संस्कृत वर्णमाला को १४ मूल सूत्रों में बाँटा है जो निम्न प्रकार
से हैं- (१) अइउण्, (२) ऋलुक्, (३) एओङ् (४) ऐऔच्, (५) हयवरट्, (६) लण्, (७) ञमङणनम्, (८) झभञ् (६) घढधष (१०) जबगडदश्, (११) खफछठथचटतव्, (१२) कपय्, (१३) शषसर्, (१४) हल् ।
इस वर्णमाला में ६ स्वर वर्ण हैं जो प्रथम चार खण्डों में लिखे हैं यथा-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ। शेष ३३ व्यंजन हैं। प्रति खण्ड का अन्तिम हल वर्ण नहीं गिना जाता है।
स्वर अथवा अच्-
अ, इ, उ, ऋ, लु-हस्व स्वर ।
आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ-दीर्घ स्वर ।
प्लुत स्वर – जहाँ कहीं स्वरों के बोलने में अधिक समय लगता है वहाँ स्वरों के आगे ‘३’ का अंक बना देते हैं, इसे ‘प्लुत स्वर’ कहते हैं जैसे-ओ३म् में ‘ओ’ प्लुत है। इसका प्रयोग वेदों में ही मिलता है। स्वरों का दूसरा नाम ही अच् है।
समान स्वर या सवर्ण स्वर
इन स्वरों में जो एक स्थान से बोले जाते हैं, उनको समान स्वर या सवर्ण स्वर कहते हैं। इस प्रकार ‘अ’ और ‘आ’, ‘इ’ और ‘ई’, ‘उ’ और ‘ऊ’ तथा ‘ऋ’ और ऋ समान स्वर हैं।
व्यंजन अथवा हल्-
क वर्ग = क, ख, ग, घ, ङ् |
च वर्ग = च्, छ, ज, झ, ञ् |
ट वर्ग = टू ठू, इ, दण् | ===> स्पर्श व्यंजन
त वर्ग = त्, थ, द, धू, न् |
प वर्ग = प्, फ्, ब्, भू, म् |
य्, र्, ल्, व् | ===> अन्तस्थ
शु, ष, स्, ह | ===> ऊष्म
क् + ष = क्ष |
त् + र = त्र | ===> संयुक्त व्यंजन
ज् + ञ = ज्ञ |
: विसर्ग
अनुस्वार
ङ, ञ, ण, न्, म् ===> अनुनासिक
स्वर तथा व्यंजनों के उच्चारण स्थान
वर्ण | नाम | उच्चारण स्थान |
---|---|---|
अ, आ, क वर्ग ह और विसर्ग | कण्ठ्य | कण्ठ |
इ, ई, च वर्ग, य श | तालव्य | तालू |
ऋ, ऋ, ट वर्ग, ष, र | मूर्धन्य | मूर्द्धा |
लृ, त वर्ग, ल, स | दन्त्य | दन्त |
उ, ऊ, प वर्ग तथा उपध्मानीय | ओष्ठ्य | ओष्ठ |
ड, ञ, ण, न, म | अनुनासिक | नासिका + मुँह |
व | दन्तोष्ठ्य | दन्त + ओष्ठ |
ए, ऐ | कण्ठ तालव्य | कण्ठ + तालू |
ओ, औ | कण्ठोष्ठ्य | कण्ठ + ओष्ठ |
व्यंजन का दूसरा नाम हल् है। ये स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते किन्तु संस्कृत व्याकरण में जहाँ कहीं व्यंजनों का कोई कार्य होता है, वहाँ उसका तात्पर्य केवल व्यंजन से होता है। उनके साथ बोले जाने वाले स्वर से उनका कोई तात्पर्य नहीं है।
ङ्, ञ, ण, न्, म् को अनुनासिक व्यंजन कहते हैं। ये वर्ण जब एक-दूसरे के समीप आते हैं, तब व्यवस्था के अनुसार उनमें परिवर्तन हो जाता है। इसी परिवर्तन को सन्धि कहते हैं।