डाकुओं का एक सरदार था, जो अपने दल के लोगों को कहता था कि भाई जहां कथा-सत्संग होता हो वहां कभी मत जाना, नहीं तो तुम्हारा काम बंद हो जाएगा । कहीं जा रहे हो, बीच में कथा होती हो, तो अपना कान बंद कर लेना ।
एक दिन एक डाकू कहीं जा रहा था । रास्ते में एक जगह सत्संग हो रहा था । अपने सरदार के कहे अनुसार उसने कान को दवा लिया और आगे बढ़ गया । चलते हुए अचानक उसके पैर में एक कांटा चुभ गया । उसने एक हाथ से कांटा निकाला और फिर कान दबा कर चल पड़ा । कांटा निकालते समय उसको यह बात सुनाई दी कि देवी-देवताओं की छाया नहीं होती । एक बार डाकुओं ने राजा के खजाने में डाका डाला । राजा के गुप्त चरो ने खोज की, लेकिन धन नहीं मिला ।
एक गुप्तचर को उन डाकुओं पर शक हो गया । वह गुप्तचर, देवी का रूप बनाकर उनके मंदिर में देवी की प्रतिमा के पास खड़ा हो गया । जब डाकू वहां आए, तो उसने कुपित होकर डाकुओं से कहा कि तुम लोगों ने इतना धन खा लिया, पर मेरी पूजा नहीं की । मैं तुम सब को खत्म कर दूंगी । डाकू क्षमा याचना मांगने लगे, और धूप-दीप से देवी की पूजा करने लगे ।
तो उनमें से जिस डाकू ने यह सुन रखा था कि देवताओं की छाया नहीं होती, वह बोला, ‘यह देवी नहीं है । देवी की छाया नहीं पड़ती, पर इसकी तो छाया पड़ रही है । ऐसा सुनते ही डाकुओं ने देवी का रूप बनाए गुप्त चर को पकड़कर खूब पिटाई की ।